जब दीदी ने खुद को मेरे सामने खोला-1

बचपन से मैं और दीदी एक-दूसरे से बहुत करीब थे। इतने करीब कि हम दोनों एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते थे। हम साथ खाते, साथ सोते और रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे वो बातें करते जो आमतौर पर लोग किसी से नहीं करते। जब वो मेरे कमरे में आकर सोती, तब मम्मी-पापा को भी कोई शक नहीं होता क्योंकि हम तो सगे भाई-बहन थे। जब तक मैं अठारह साल का हुआ, तब तक हमारे बीच सब कुछ मासूम था। लेकिन उसके बाद चीज़ें धीरे-धीरे बदलने लगी।

उससे पहले मैं आपको दीदी के बारे में बताता हूं। उनका नाम वाणी है, और मैं उन्हें हमेशा ‘वाणी दीदी’ कह कर ही पुकारता था। वो मुझसे तीन साल बड़ी थी — यानी जब मैं अठारह का हुआ, वो इक्कीस की।

वाणी दीदी की ख़ूबसूरती ऐसी थी कि कोई भी उन्हें देख कर दीवाना हो जाए। उनके लंबे, चमकदार बाल हमेशा खुले रहते थे और उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में अजीब सा जादू था। गोरा और मुलायम बदन, जैसे दूध में घुला गुलाब। उनकी कमर इतनी पतली थी, कि दोनों हाथों में पकड़ में आ जाए, और उस पतली कमर के नीचे उभरे हुए गोल हिप्स। उनकी छाती भरी हुई थी, बिल्कुल गोल और उभारदार, जैसे कस कर भरे हुए दो रसगुल्ले, जो हर बार उनके टाइट कपड़ों से झांकते हुए नज़रों को सीधा खींच लेते थे।

उनकी नाभि बेहद गहरी और चिकनी थी, जो अक्सर उनके क्रॉप टॉप या ढीली साड़ी में से झलकती थी। उनकी चाल में ऐसा लचीलापन था कि हर मोड़ पर कोई ना कोई उन्हें घूरता ही मिलता। जब वो झुकती, तो उनके उभारों की गहराई और उभर कर दिखती, और जब वो चलती, तो उनकी गोल और भरी हुई गांड लचक में हिलती, जैसे किसी ने जान-बूझ कर उसमें मादकता भर दी हो।

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