मेरे चारों बच्चे मेरी जान-2

अभिषेक अब 18 का हो गया था और बारहवीं पास कर ली थी। अच्छे नंबर से ही पास हुआ था और दिल्ली के किसी भी अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल जाता। लेकिन उसके सपने कुछ अलग थे। एक दिन मैं और मेरे चारों बच्चे अभिषेक के कॉलेज के विषय में ही बात कर रहे थे।

तो इतने में अभिषेक ने कहा, “माँ, मैं सोच रहा हूँ की मैं किसी छोटे मोटे कॉलेज में ही एडमिशन ले लेता हूँ।”

तो मैंने उससे सवाल किया, “क्यों बेटु? तेरे इतने अच्छे मार्क्स आयें हैं। अच्छे कॉलेज में ले एडमिशन तो नौकरी भी अच्छी मिलेगी। अगर कहीं पैसे देने होंगे तो बता, है पैसे, दे दूंगी। ” मैं अपने तीन बेटो को बेटु कहकर ही पुकारती थी और बेटी को छोटी।

तो अभिषेक ने कहा, “नहीं माँ, ऐसा कुछ भी नहीं। पापा ने इतना बड़ा बिज़नेस बनाया, आपने अपनी खुशियां छोड़ कर इस परिवार को और बिज़नेस को इतना आगे बढ़ाया, दादू ने भी गांव से आकर इस बिज़नेस के लिए इतना कुछ किया। मैं चाहता हूँ आप लोगों से एक कदम और आगे जाऊँ। मैं चाहता हूँ की इसे एक ब्रांड बनाऊं और सिर्फ दिल्ली में नहीं, पुरे इंडिया में कारोबार करूँ। अच्छे कॉलेज, अच्छे नौकरी से कितना मिलेगा, माँ? उससे कई गुना ज़्यादा तो हम यहाँ से बना सकते है।”

बात ठीक कर रहा था अभिषेक। तो पुरे परिवार ने ये निर्णय लिया की अभिषेक का दाखिला किसी छोटे से कॉलेज में करवा देंगे जहाँ पे हाजिरी को मैनेज किया जा सके और सिर्फ डिग्री ज़रूरी है। वही वक़्त वो कारोबार में देगा। बाकी बच्चे छोटे थे लेकिन उनकी भी बातें सुनना ज़रूरी था।

मैं काफी खुश थी। मुझे अभिषेक में आलोक जी की परछाई दिखती है। कुछ नया करने की लालसा, रिस्क लेने की हिम्मत। वो आलोक जी जैसा ही दिखने में भी है काफी हद्द तक। बस, अपने पिता से ज़रा लम्बा है।

लेकिन बस एक बात की चिंता थी। की अगर अभिषेक रोज़ ऑफिस चलेगा मेरे साथ तो मेरी जो चुदाई होती थी दोनों कर्मचारियों से, वो बाधित हो जायेगी। क्यूंकि इसके विषय में सासुमाँ-ससुरजी को पता था पर बच्चों को कैसे बताऊँ? लेकिन मैंने अपने इस सोच को दरकिनार किया क्यूंकि अब मुझे अपने बच्चों के ख़ुशी और भविष्य के बारे में सोचना था।

अगले दिन से वो मेरे साथ ऑफिस आने लगा। और धीरे धीरे पूरा कारोबार समझने लगा। माल कहाँ से आता है, क्या रेट चल रहा है, पूरी विधि क्या है, कैसे इसे बढ़ा सकते हैं। क्या बदलने की ज़रूरत, क्या रख सकते हैं। एक-दो हफ्ते में मैं समझ गयी की अभिषेक बिलकुल अपने पापा जैसा है। उतना ही मेहनती और बुद्धिमान।

इसी बीच मेरी चुत में खुजली होती, लेकिन मैं रगड़ के शांत कर देती। लेकिन काफी दिनों से किसी लौड़े के अंदर ना जाने से खुजली सिर्फ चुत रगड़ने से शांत नहीं हो रही थी। एक दिन मैं ऑफिस में थी और मन और शरीर बिलकुल अशांत था। बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था।

मौका पाते ही मैंने कर्मचारी को इशारा किया बाथरूम में आने को। वो आ गया और मैं पैंटी उतार कर उसके सामने झुक गयी। उसने मेरे चुत में लंड डाल कर चोदना शुरू कर दिया। मैं आँखें बंद करके चुद रही थी की अचानक गेट खुली और आवाज़ आयी, “माँ?”

डर के आँख खोली तो देखा अभिषेक मुझे गुस्से से देख रहा था। वो अचंभित भी था, गुस्से में भी था और उसका चेहरा बिलकुल लाल हो गया था। उसने ज़ोर से गेट बंद की और वहाँ से चला गया। मैं जल्दी से बाहर आ गयी। पुरे दिन उसने मुझसे बात नहीं की, मेरे पुकारने पर जवाब भी नहीं दे रहा था, घर वापस जाते वक़्त गाड़ी में चुपचाप रहा, घर पहुँचते ही अपने कमरे में चला गया और गेट बंद कर ली।

मैंने उसे समझा और उसका गुस्सा जायज़ था। कोई भी अपनी माँ को किसी और से चुदवाती देख बर्दाश्त नहीं करेगा। मैंने उसे खाने पे बुलाने के लिए आरती को भेजा पर उसने कहा की उसका खाना उसके कमरे में ही दे दें। ये पहली बार था हम में से कोई भी खाना अपने रूम में मंगवाया हो। हमारे घर का नियम था, चाहे कुछ भी हो, कितनी भी परेशानी हो, खाना पूरा परिवार साथ में डाइनिंग टेबल पर बैठ कर ही खाएंगे।

मैंने भी ज़ोर न देते हुए आरती के हांथों खाना भिजवा दिया। खाना लेकर अभिषेक ने रूम लॉक कर दिया। बाकी तीनों बच्चे आकर पूछने लगे की भैया को क्या हुआ, तो मैंने झूठ कह दिया की किसी कर्मचारी से झगड़ा हो गया भैया का और उसने भैया को माँ की गाली दे दी। अब कुछ गंभीर झूठ बोलना ज़रूरी था वरना बच्चे मानते नहीं क्यूंकि ऐसा पहली बार हुआ था।

मैं भी बाकी बच्चों को सुला कर अपने कमरे में चली गयी। और जाते ही रोने लगी। मैं आलोक जी को कोसने लगी की क्यों वो मुझे छोड़ कर चले गए। आज वो यहाँ होते तो ऐसे दिन नहीं देखने पड़ते। और रोते रोते मेरी आँख लग गयी।

सुबह उठी, कामवाली ने नाश्ता बना दिया था और बच्चों को तैय्यार कर दिया था। मैंने अभिषेक के कमरे में देखा तो कमरा अभी भी बंद था। मैंने सोचा आज वो नहीं जाएगा। उसे रहने देती हूँ, जब उसका गुस्सा शांत होगा तो बात करुँगी। मैंने कामवाली से भी कहा की उस कमरे में आज सफाई रहने दे। मैं तैय्यार हुयी और गाड़ी में आकर बैठी तो देखा अभिषेक पहले से ही तैय्यार होकर बैठा था। मेरे ख़ुशी के मारे आँखों में पानी आ गया।

मैंने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा, “अरे, मेरा बेटु, तू यहाँ? नाश्ता किया की नहीं?”

उसने बात नहीं की, बस ना में सर हिलाया और ड्राइवर को इशारा किया की गाड़ी बढाए। मैंने सोचा की ज़्यादा तंग ना करके बिज़नेस के बारे में बात करूँ। कुछ भी कहती या पूछती तो बस सर हिलता या फिर हम्म्म्म करता। वो मेरी तरफ देख नहीं रहा था। थोड़ा दुःख हो रहा था पर ख़ुशी भी थी की वो आ गया।

पुरे दिन वो वैसे ही रहा। पर हम काम में व्यस्त हो गए और ध्यान नहीं रहा। मैंने दोपहर में ब्रेक लेकर उसे खाने को बुलाया तो उसने कर्मचारी से कह कर भिजवाया को उसे भूख नहीं है। वो अभी भी गुस्से में था और ये गुस्सा इतनी आसानी से निकलेगी भी नहीं।

वैसे हमारे ऑफिस की छुट्टी 6 बजे होती है लेकिन 5 बजे सारे कर्मचारी जाने लगे। मैंने पूछा तो उन्होंने कहा की अभिषेक सर ने आज जल्दी छुट्टी दे दी है। दिन भी शनिवार का था तो सबके लिए ख़ुशी थी। पर मैं अब भी दुःखी थी, पछतावे में थी। हमारा ड्राइवर आया और बोला, “मैडम, अभिषेक बाबा गाड़ी में बैठ गए हैं, चलिए।”

मैं कुछ समझी नहीं पर अपना सामान वगैरह समेट कर गाड़ी में बैठ गयी। मैं चाहती थी अभिषेक से पूछूं की आज जल्दी छुट्टी क्यों दे दी। पर वो गुस्से में ही था और मैंने भी चुप रहना ही ठीक समझा। और नहीं चाहती थी की ड्राइवर के सामने कुछ भी बातें हो।

मैंने गाड़ी से बाहर देखा तो देखा की ड्राइवर ने घर वाला रास्ता नहीं लिया और ये कोई और जगह थी। शायद अभिषेक ने पहले ही बता दिया था ड्राइवर को।

ड्राइवर ने एक पार्क के सामने गाड़ी रोकी। तभी अभिषेक ने कहा, “चलो, माँ”। कल दोपहर से लेकर अब तक में ये पहले शब्द थे जो अभिषेक के मुंह से निकला। और हम पार्क के अंदर आ गए, उसने वहाँ से दो कप चाय ली, एक खुद ली, एक मुझे दी। बात कुछ नहीं हो रही थी। मैं समझ नहीं पा रही थी पर चुप थी।

फिर हम टहलने लगे। ये पार्क दिल्ली का काफी मशहूर और बड़ा पार्क है लेकिन काफी सुनसान रहता है। हम चाय पीते पीते काफी दूर चले और अंत में एक बिलकुल सुनसान से जगह पे एक खाली बेंच दिखी, जहाँ से कोई हमें देख नहीं पायेगा, वहाँ अभिषेक जाकर बैठ गया और मुझे भी इशारा किया बैठने को।

हम दोनों बैठ गए और 5 मिनट तक बिलकुल चुप।

अब ये मौन मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था तो मैंने ही कह दिया, “बेटु, मुझे माफ़ कर दो। मैं जानती हूँ तुम मुझसे बहुत गुस्सा हो। तुम्हारा गुस्सा जायज़ है। कोई भी अपनी माँ को ऐसे नहीं देख सकता, वो भी किसी और के साथ। मुझे पता है तुम्हें मुझे देख के भी शायद घिन्न आ रही होगी।”

तो उसने बीच में काटते हुए कहाँ, “नहीं माँ, ऐसा नहीं है। आप मेरी माँ हो, घिन्न क्यों आएगी? हाँ, गुस्सा हूँ। पर इसकी क्या ज़रूरत पड़ गयी माँ? क्या पापा आपको प्यार नहीं करते थे?”

जवाब देते हुए मैंने कहा, “बेटु, मैंने तुम्हारा पापा के अलावा आज तक किसी से प्यार नहीं किया। वो मेरे जान थे, मेरे सबकुछ थे। आज जो भी हैं हम, सब उनकी ही वजह से। उनके जाने के बाद मैंने किसी मर्द को अपना दिल नहीं दिया। पर हर इंसान की एक शारीरिक ज़रूरत भी होती है। मैंने बहुत कोशिश की घरेलु समाधान खोजने की, बस अशांत ही रहती थी, बेटा। तू भी अब बड़ा हो रहा है, तू भी समझेगा की इस शरीर को खाना, कपड़ा और नींद के अलावा भी कुछ चीज़ें चाहिए।”

तो इतने में वो गुस्से में बोल पड़ा, “तो माँ शादी कर लेती दोबारा। किसी और के साथ घर बसा के करती ये सब। अपनी इज़्ज़त का तो लिहाज़ करो। शर्म नहीं आ रही ऑफिस के एक कर्मचारी से चु….. ” ये कहते कहते हुए वो रुक गया।

इतने में मेरे आंसू निकल आयें। मैंने कहा, “बेटा मैं क्या करती? तू बता। किसी और से शादी करती तो आज क्या हमारे पास इतना घर-गाड़ी-पैसा होता? वो आदमी लूट कर चला जाता तो? या फिर मुझे मारता-पीटता तो? या फिर तुम बच्चों से बुरा व्यवहार करता तो? मैंने जो भी किया सिर्फ तुम चारों का सोच कर किया। और उससे भी ज़्यादा, मैंने सिर्फ एक इंसान से प्यार की है, तुम्हारे पापा से।

उन्होंने मुझे तुम चारों को दिया, इतना बड़ा कारोबार बना कर दिया, तुम्हारे दादा-दादी जैसा परिवार दिया। मैं चाह के भी उन्हें धोखा नहीं दे सकती और इन कर्मचारियों से मेरा कोई दिल नहीं जुड़ा, ये बस मुझे सर्विस देते हैं और मैं इनको पैसे देती हूँ।”

“पर माँ…. ” ये कहकर वो फिर रुक गया। मैं उसके विडम्बना को समझ रही थी।

“माजी और बाबूजी ने भी मुझे कहा था शादी करने और उन्होंने ने ही मुझे इजाज़त दी कर्मचारी से सम्भोग करते रहने को।”, मैंने उसे बताया।

ये सुन वो हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा।

“हाँ बेटा, तेरे दादा-दादी जानते थे। हाँ, मैंने पाप किया है। लेकिन मैंने तेरे पापा को धोखा नहीं दिया। वो जहाँ कहीं भी हैं, वो जानते हैं और वो मुझे समझेंगे। कोई मुझे समझे ना समझे, वो मुझे समझेंगे।” ये कहते ही मैं रो पड़ी। शायद अभिषेक की भी आँखें नम हो गयी थी।

इतने में वो मेरे करीब आकर मुझे गले लगा लिया और मैं उसके सीने पे सर रखकर रोने लगी। पाँच मिनट तक हम ऐसे ही बैठे रहे। फिर उसने कहा, “मैं हूँ माँ, मैं समझूंगा तुझे।”

बिलकुल इस क्षण में मुझे जो हुआ, मुझे आजतक नहीं समझ आती की आखिर हुआ क्या था मुझे? जब उसने कहा “मैं समझूंगा तुझे”, मुझे आलोक जी की आवाज़ सुनाई दी। मैंने उसके सीने से सर उठाया, उसके चेहरे को हलके से पकड़ कर अपने पास खिंचा और उसके होंठों पे अपना होंठ रख दिया और अपने आँखे बंद कर ली। उसके होंठ मेरे होंठों पर ही थे पर उसके तरफ से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं थी।

कहानी अभी काफी बाकी है।